June 25, 2019

विनम्र श्रद्धांजलि: ब्रह्मलीन हुए पद्मभूषण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी



भारत माता मंदिर के संस्थापक निवृत्त शंकराचार्य पद्मभूषण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज मंगलवार सुबह  8:00 बजे हरिद्वार में उनके निवास स्थान राघव कुटीर में ब्रह्मलीन हो गए।

वह पिछले 15 दिनों से गंभीर रूप से बीमार थे और उनका देहरादून के मैक्स हॉस्पिटल में इलाज चल रहा था। लंबे समय तक वेंटिलेटर पर रहने के बाद उन्हें 5 दिन पहले हरिद्वार स्टेट उनके आश्रम ले आया गया था। यहीं पर उनकी कुटी को आईसीयू में तब्दील कर उनका इलाज चल रहा था।

जूना अखाड़ा के आचार महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी के मंगलवार को ब्रह्मलीन होने की जानकारी देते हुए बताया कि स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी को उनके निवास स्थान राघव कुटीर में बुधवार को समाधि दी जाएगी।









पथ-प्रदर्शक, अध्यात्म-चेतना के प्रतीक, तपो व ब्रह्मानिष्ठ, विश्व प्रसिद्ध भारत माता मंदिर के संस्थापक निवृत्त शंकराचार्य पद्मभूषण महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि का जन्म 19 सितंबर, 1932 को आगरा में हुआ था। उनका परिवार मूलत: सीतापुर (उत्तर प्रदेश) का निवासी था। संन्यास से पहले वे अंबिका प्रसाद पांडेय के नाम से जाने जाते थे।

राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात शिक्षक उनके पिता शिवशंकर पांडेय ने उन्हें बचपन से ही अध्ययनशीलता, चिंतन और सेवा का का पाठ पढ़ाया था और उन्हें सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग और सक्रिय रहने की प्रेरणा दी। यही वजह थी कि वह अपने बाल्यावस्था से ही अध्ययनशील, चिंतक और निस्पृही व्यक्तित्व के धनी हो गए थे। सेवाभाव की अधिकता के कारण उनका मन मानव और धर्मसेवा में अधिक लगता था और सांसारिक जीवन से उनका कोई प्रेमभाव कभी नहीं रहा। अपनी इसी खूबी के कारण देश के भीतर उनका जितना सम्मान था, विदेशों में भी उनकी उतनी ही ख्याति थी।

उन्होंने बेहद कम आयु में ही महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंद महाराज से संन्यास दीक्षा ग्रहण कर गृहत्याग कर 'सत्यमित्र ब्रह्मचारी' के रूप में धर्म साधना को अपना कर्म क्षेत्र बना लिया।

29 अप्रैल 1960 अक्षय तृतीया के दिन मात्र 26 वर्ष की आयु में ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया गया। वे इस आयु में शंकराचार्य बनने वाले भारत के प्रथम संन्यासी थे। शंकराचार्य का पद त्यागने वाले भी वे एक मात्र ही थे।

भानपुरा पीठ के शंकराचार्य के तौर पर करीब नौ वर्षों तक धर्म और मानव के निमित्त सेवा कार्य करने के बाद उन्होंने 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद से मुक्त कर गंगा में दंड का विसर्जन कर दिया और खुद को परिव्राजक संन्यासी के रूप में प्रस्तुत कर धर्म और मानव सेवा के आजीवन संकल्प संग देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में लग गए और जीवन के अंतिम समय तक इसी में लीन रहे।

उनका देश के शीर्ष राजनेताओं इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेई, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, आरएसएस के प्रमुख रहे कई संघचालकों से  निजी संबंध थे । 3 साल पहले उन्हें भारत सरकार ने पदम विभूषण की उपाधि से सम्मानित किया था।

स्वामी सत्यमित्रानंदजी को सूती कपड़े का अचला और कौपिन पहनना बहुत पसंद था। महाराज हर साल गुरु पूर्णिमा के दिन अपने भक्तों को 400 मीटर सूती कपड़ा बांटता थे।

सादा भोजन करने वाले जगद्गुरू शंकराचार्य को मीठा बहुत पसंद था। मीठे में भी मोदक उनका सबसे लोकप्रिय व्यंजन था। बताया जाता है कि वह नियमानुसार दिन में तीन बार मोदक का सेवन करते थे। वे कहते थे कि मोदक खाने से मुंह से हमेशा मीठे शब्द निकलते हैं।

मधुर भाषी ओजस्वी वक्ता स्वामी सत्यमित्रानंद महाराज के निधन से भारतीय दशनामी सन्यासी परंपरा एक युग का अंत हो गया है ।

महान पुण्यात्मा को सादर श्रद्धांजलि!!

ॐ शांति!

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