नवधा भक्ति क्या है?
‘नवधा’ का अर्थ है नौ प्रकार से या नौ भेद। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। कहते है इस भक्ति का विधिवत पालन करने से भक्त भगवान को प्राप्त कर सकता है।
नवधा भक्ति दो युगों में दो लोगों द्वारा कही गई है। सतयुग में, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु से कहा था। फिर त्रेतायुग में, श्री राम ने माँ शबरी से कहा था।
रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में, श्री राम ने माँ शबरी को नवधा भक्ति समझाते है। आइये जानिए नवधा भक्ति की चौपाई एवं उनके अर्थ
श्रीरामचरितमानस से अवधी भाषा में नवधा भक्ति..
Lord Ram explained, the nine types of devotion/ penance in form of Navdha Bhakti to Param Tapasvini Shabri.
नवधा भगति कहउं तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दुसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दुसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखइ परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना॥
नव महुं एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरूष सचराचर कोई॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
English Translation of Navdha Bhakti from Sri Ramcharitmanas..
The first step to devotion (Bhakti) is to keep the company of the saints (Satsang).
The second step is to enjoy listening to legends/discourses pertaining to the Lord.
Selfless service to the Guru's lotus feet without any pride is the third step.
The fourth step is to earnestly sing praises of the Lord's virtues with a heart clear of guile, deceit or hypocrisy.
Chanting my Name with steadfast faith is the fifth step as the Vedas reveal.
The sixth, is to practice self-control, good character, detachment from manifold activities and always follow the duties as good religious person.
The seventh step is to perceive the world as God Himself and regard the saints higher than the Lord.
The eighth, is a state (which one arrives at when one travels the first seven steps) where there is no desire left, but the gift of perfect peace and contentment with whatever one has. (In this state) one does not see fault in others, even in a dream.
In this state, one has full faith in the Lord, and becomes (childlike) simple with no hypocrisy or deceit.
The devotee has strong faith in the Lord with neither exaltation or depression in any life circumstance (but becomes calm and composed).
Shri Ram adds that Shabri’s Bhakti is perfect. Yet if anyone were to have taken even one step towards devotion, out of all nine, she/he would be very dear to the Lord.
Hindi Translation of Navdha Bhakti from Sri Ramcharitmanas..
श्री राम जी कहते है शबरी से कि अब मैं तुम्हे नवधा भक्ति की जो ज्ञान है उसे सुनाने जा रहा हूँ। तुम उसे बड़े ध्यान से सुनो।
पहला भक्ति यही कहलाती है कि संतो कि संगत करनी चाहिए।
दूसरी भक्ति है कि मेरे कथाओं और भजन में मग्न रहना और उसी में लीन हो जाना।
बिना किसी बात के गर्व करते हुए अपने गुरु कि निरन्तर सेवा करना तीसरी भक्ति है।
चौथी भक्ति में वह माना जाएगा जो छल-कपट रहित होकर श्रद्धा प्रेम व लगन के साथ प्रभु नाम सुमिरन करता है।
अपने ह्रदय में विश्वास के साथ मेरे नाम का निरतर जाप करना वेदो के अनुसार पांचवी भक्ति है।
छठवीं भक्ति है, जो शीलवान पुरुष अपने ज्ञान और कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए भगवद् सुमिरन करते हैं।
सातवीं भक्ति है कि पूरी दुनिया को भगवान् के रूप में देखना चाहिए और संत जनो को भगवन से ऊपर का पद देना चाहिए।
आठवीं भक्ति है कि जिन मिले उतना में ही संतुष्ट हो जाना। सभी इक्छा का कामना छोड़ कर सपने में भी किसी का बुरा मत सोचना।
नवम भक्ति है कि एक छोटे बच्चे कि तरह बन कर अपने आप को पूरी तरह भगवन को सौप दे और अपना हर कार्य और जीवन चलने का बिनती भगवन से करे। जब पूरे जगत के रचेता तुम्हारा जीवन चलाएंगे तो भला कोई बुरा जीवन में कभी आ सकता है?
श्री रामचन्द्र जी महतपस्विनि माता शबरी से कहते है कि इन भक्तियो में से एक भी किसी के पास हो तोह वह प्राणी मुझे बहोत प्रिये है और तुझ में तोह यह सभी भक्ति है। तुम धन्य हो माता तुम धन्य हो।
श्रीमद् भागवत महापुराण में नवधा भक्ति के बारे में क्या बताया?
प्रह्लाद जी द्वारा कही गई नवधा भक्ति श्रीमद् भागवत महापुराण के सातवें स्कन्ध के पांचवें अध्याय में है। वह इस प्रकार है:
हिरण्यकशिपु पुत्र प्रेम में विभोर होकर प्रसन्न मुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर पूछा -
भागवत पुराण ७.५.२२
प्रह्रादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्।
कालेनैतावतायुष्मन्यदशिक्षद्गुरोर्भवान्॥
हिरण्यकशिपु ने कहा, "बेटा प्रह्राद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उनमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।"
भागवत पुराण ७.५.२३-२५
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्॥
तब प्रह्लाद जी कहते है, "पिताश्री! विष्णु भगवान की भक्ति में नौ भेद है - भगवान के गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा (पाद सेवन), पूजा-अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाय, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।"
- श्रवण: भगवान के चरित्र, लीला, महिमा, गुण, नाम तथा उनके प्रेम एवं प्रभावों की बातों का श्रद्धापूर्वक सदा सुनना और उसी के अनुसार आचरण करने की चेष्टा करना, श्रवण भक्ति है। श्रवण का अर्थ सुनना होता है इस प्रकार की भक्ति में भक्त सुनकर ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को बढ़ाता है।
- कीर्तन: भगवान की लीला, कीर्ति, शक्ति, महिमा, चरित्र, गुण, नाम आदि का प्रेमपूर्वक करना कीर्तन भक्ति है। श्रीनारद, व्यास, वालमीकि, शुकदेव, चैतन्य महाप्रभु आदि इसी श्रेणी के भक्त माने जाते है। ऐसी मान्यता है कि कीर्तन के समय भक्त प्रभु के सबसे निकट होता है। इस कीर्तन भक्ति में प्रभु के भजन को गाकर भक्त अपने भावों को दृढ़ करता है।
- स्मरण: सदा अन्नय भाव से भगवान के गुण प्रभाव सहित उनके स्वरूप का चिन्तन करना और बारम्बार उनपर मुग्ध होना स्मरण भक्ति है। स्मरण का अर्थ याद करना है। थोड़े-थोड़े समय बाद प्रभु को याद करते रहना इस भक्ति में आता है। प्रहलाद, धुव्र, भरत, भीष्म, गोपियां आदि इसी श्रेणी के भक्त है।
- चरणसेवन: भगवान के जिस रूप की उपासना करते हो, उसी का चरण सेवन करना या सब में ईश्वर को देखकर उन्हें प्रणाम करना। इस भक्ति में भगवान के चरणों की आराधना का महत्व है।
- पूजन: अपनी रुचि के अनुसार भगवान की किसी मूर्ति या मानसिक स्वरूप का नित्य भक्तिपूर्वक पूजन करना। नित्य दीप प्रज्जवलित कर भगवान की आरती व पूजा करना इस भक्ति के अंतर्गत आता है। राजा पृथु, अम्बरीष आदि इसी श्रेणी के भक्त है।
- वन्दन: ईश्वर या समस्त जग को ईश्वर का स्वरूप समझकर वन्दन करना वन्दन भक्ति है। जब भी ईश्वर के किसी भी स्वरूप के दर्शन हो तो वन्दन करने से इस प्रकार की भक्ति बढ़ती है। अक्रूर वन्दन भक्त है।
- दास्य: ईश्वर को अपना मालिक मन से स्वीकार कर स्वयं को उनका दास मान लेना दास्य भक्ति है। ईश्वर की सेवा कर प्रसन्न होना। भगवान को अपना सर्वस्व मान लेना दास्य भक्ति कहलाता है। हनुमानजी और लक्ष्मण जी दास्य भाव के भक्त है।
- सख्य: भगवान को अपना परम हितकारी मानकर उन्हें अपना दोस्त मान लेना सख्य भाव की भक्ति है। यह अत्यंत सरल भक्ति है। जिस प्रकार अपने दोस्त के साथ संबंध होते है ठीक उसी प्रकार ईश्वर को अपना मित्र मानना। अर्जुन, उद्धव, सुदामा इस श्रेणी के भक्त है।
- आत्मनिवेदन या समर्पण : अंहकार रहित होकर अपना सर्वस्व ईश्वर को अर्पण कर देना। स्वयं को ईश्वर को मन से सौप देना आत्मनिवेदन या समर्पण भक्ति कहलाता है। महाराज बलि, गोपियां आदि इसी श्रेणी के भक्त है।
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